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वसोः॑ प॒वित्र॑मसि श॒तधा॑रं॒ वसोः॑ प॒वित्र॑मसि स॒हस्र॑धारम्। दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता पु॑नातु॒ वसोः॑ प॒वित्रे॑ण श॒तधा॑रेण सु॒प्वा᳕ काम॑धुक्षः ॥३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। श॒तधा॑र॒मिति॑ श॒तऽधा॑रम्। वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। स॒हस्र॑धार॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधारम्। दे॒वः। त्वाः॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। वसोः॑। प॒वित्रे॑ण। श॒तधा॑रे॒णेति॑ श॒तऽधा॑रेण। सु॒प्वेति॑ सु॒ऽप्वा᳕। काम्। अ॒धु॒क्षः॒ ॥३॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त यज्ञ कैसा सुख करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वसोः) यज्ञ (शतधारम्) असंख्यात संसार का धारण करने और (पवित्रम्) शुद्धि करनेवाला कर्म (असि) है तथा जो (वसोः) यज्ञ (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने और (पवित्रम्) शुद्धि का निमित्त सुख देनेवाला (असि) है, (त्वा) उस यज्ञ को (देवः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (सविता) वसु आदि तेंतीस देवों का उत्पत्ति करनेवाला परमेश्वर (पुनातु) पवित्र करे। हे जगदीश्वर ! आप हम लोगों से सेवित जो (वसोः) यज्ञ है, उस (पवित्रेण) शुद्धि के निमित्त वेद के विज्ञान (शतधारेण) बहुत विद्याओं का धारण करनेवाले वेद और (सुप्वा) अच्छी प्रकार पवित्र करनेवाले यज्ञ से हम लोगों को पवित्र कीजिये। हे विद्वान् पुरुष वा जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू (काम्) वेद की श्रेष्ठ वाणियों में से कौन-कौन वाणी के अभिप्राय को (अधुक्षः) अपने मन में पूर्ण करना अर्थात् जानना चाहता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का सेवन करके पवित्र होते हैं, उन्हीं को जगदीश्वर बहुत-सा ज्ञान देकर अनेक प्रकार के सुख देता है, परन्तु जो लोग ऐसी क्रियाओं के करनेवाले वा परोपकारी होते हैं, वे ही सुख को प्राप्त होते हैं, आलस्य करनेवाले कभी नहीं। इस मन्त्र में (कामधुक्षः) इन पदों से वाणी के विषय में प्रश्न है ॥३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(वसोः) वसुर्यज्ञः (पवित्रम्) शुद्धिकारकं कर्म (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (शतधारम्) शतं बहुविधमसंख्यातं विश्वं धरतीति तम्। शतमिति बहुनामसु पठितम् (निघं꠶३.१)। (वसोः) वसुर्यज्ञः (पवित्रम्) वृद्धिनिमित्तम् (असि) अस्ति (सहस्रधारम्) बहुविधं ब्रह्माण्डं धरतीति तं यज्ञम्। सहस्रमिति बहुनामसु पठितम् (निघं꠶३.१)। (देवः) स्वयंप्रकाशस्वरूपः परमेश्वरः (त्वा) तं यज्ञम् (सविता) सर्वेषां वसूनामग्निपृथिव्यादीनां त्रयस्त्रिंशतो देवानां सविता। सविता वै देवानां प्रसविता (शत꠶१.१.२.१७)। (पुनातु) पवित्रीकरोतु (वसोः) पूर्वोक्तो यज्ञः (पवित्रेण) पवित्रनिमित्तेन वेदविज्ञानकर्मणा (शतधारेण) बहुविद्याधारकेण परमेश्वरेण वेदेन वा (सुप्वा) सुष्ठुतया पुनाति पवित्रहेतुर्वा तेन (काम्) कां कां वाचं (अधुक्षः) दोग्धुमिच्छसीति प्रश्नः। अत्र लडर्थे लुङ् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१.५.४.१२-१६) व्याख्यातः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - यो वसोर्वसुर्यज्ञः शतधारं पवित्रमसि शतधा शुद्धिकारकोऽस्ति सहस्रधारं पवित्रमसि सुखदोऽस्ति त्वा तं सविता देवः पुनातु। हे जगदीश्वर ! भवान् वसोः वसुर्यज्ञः तेनास्माभिरनुष्ठितेन पवित्रेण शतधारेण सुप्वा यज्ञेनास्मान् पुनातु। हे विद्वन् ! जिज्ञासो वा त्वं कां वाचमधुक्षः प्रपूरयितुमिच्छसि ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः पूर्वोक्तं यज्ञमनुष्ठाय पवित्रा भवन्ति, तान् जगदीश्वरो बहुविधेन विज्ञानेन सह वर्त्तमानान् कृत्वैतेभ्यो बहुविधं सुखं ददाति, परन्तु ये क्रियावन्तः परोपकारिणः सन्ति, ते सुखमाप्नुवन्ति नेतरेऽलसाः। अत्र कामधुक्ष इति प्रश्नोऽस्ति ॥३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक पूर्वोक्त यज्ञ करून पवित्र होतात. त्यांनाच परमेश्वर पुष्कळ ज्ञान व अनेक प्रकारचे सुख देतो; पण जी माणसे परोपकारी असून, अशा प्रकारचे कार्य करतात त्यांनाच हे सुख प्राप्त होते. आळशी लोकांना हे सुख प्राप्त होत नाही. या मंत्रात (कामधुक्षः) या शब्दाद्वारे माणसांना वाणीसंबंधी प्रश्न विचारलेले आहेत.